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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2679
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।

अथवा
'श्रृंगार रस का ऐसा सुन्दर उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन की पुष्टि करते हुए 'भ्रमरगीत' के उपालभ्य स्वरूप को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।

उत्तर -

भ्रमरगीत : उपालंभ काव्य - उपालंभ का सामान्य अर्थ है - सखी के शिकवा-शिकायत। काव्यशास्त्र में इसकी गणना 'सखी कर्म के अंतर्गत होती रही है। संस्कृत कर्मों की विवेचना करते समय उपालंभ का नाम भी आया है। हिन्दी के नायक-नायिका भेद के कतिपय आचार्यों ने भी इसी रूप में स्वीकार किया है। सामान्यतः नायक को उलाहना देकर उसकी नायिका को मनोनुकूल कराना ही उपालंभ है। काव्य एक व्यापक अभिव्यंजना का माध्यम होता है फिर काव्यशास्त्र की उपर्युक्त परिभाषा अपनी संकीर्ण सीमा में बहुत कुछ समेट नहीं पाती।

हिन्दी के भक्ति काव्य में व्यापक रूप से और गीति काव्य में परम्परा के रूप में उपालंभ को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है। मानवीय हृदय की गीभर अभिव्यक्ति इस काव्य में हुई है। हिन्दी साहित्य कोश में उपालम्भ के संबंध में लिखा है उपालंभ हमारी विशेष भावास्थिति का परिणाम है, जो केवल शृंगार की सीमाओं से नहीं बांधा जा सकता है। इसका मुख्य आधार है साहचर्य की सहानुभूति। उपालंभ उलाहना मात्र नहीं है, उसमें न वास्तविक शिकायत रहती है न प्रेमपात्र की निंदा, यद्यपि इस काव्याभिव्यक्ति में आमासित यही होता है। इसका आधार गहरी आत्मीयता और प्रेम है। प्रेमी अपने प्रेमपात्र से अलग होकर विकल और विह्वल हो जाता है। उसकी मिलन की उत्कंठा तीव्र होकर उसे व्यथित कर देती है, पर इस भावावेग में भी उसके मन में प्रेमानुभूति अधिक गहरी होती है। ऐसी ही मनःस्थिति में प्रेमी किसी सहृदय, सहचर या सहचरी को माध्यम बनाकर अपने प्रेमी को उपालंभ देता है। इस बहाने प्रेम की पात्र की चर्चा के पक्ष मानते आते हैं, प्रेम का आवेग आश्रय पाकर विविध रूपों में प्रकट होता है। इस सम्पूर्ण अभिव्यक्ति की केन्द्रीय भावना रहती है मिलनाभिलाषा। किसी-किसी स्थिति में केवल अपने विश्वास और प्रेम की अभिव्यक्ति इस प्रकार होती है।

वियोग की घड़ियों में उपालंभ संयोग की आशा से प्रेरित होते हैं। उस समय प्रियतम का समग्र अतीत व्यवहार और उसकी निष्ठुरता का वर्णन किया जाता है। इतने पर भी प्रेयसी की अपनी सुखद कल्पनाओं की स्मृति अन्तर्निहित रहती है। साथ ही वियोग की परिस्थिति का दोषारोपण प्रिय पर करके मिलन- कामना भी व्यक्त की जाती है। संयोग से यह उपालंभ स्वयं नायिका नायक को दिया करती है। इस पद्धति के आधार पर रीतिकालीन कवियों ने नायक के अन्य नायिका के रति चिन्हों का तथा उसके प्रति मुख्य नायिका के ईर्ष्या भाव का कौशलपूर्ण वर्णन किया है। परन्तु यह संयोग का उपालंभ केवल मान का अंशमात्र है, स्वाभाविक हृदय की वेदना की अभिव्यक्ति का साधन नहीं। वियोग पक्ष में भी इस उपालंभ की कई स्थितियाँ हैं। नायिका विरह वेदना के बीच स्वागत रूप में अपने प्रिय को उपालंभ देती है, परन्तु इस उपालम्भ में वह स्वाभाविक तन्मयता और आशा-निराशा का स्पन्दन नहीं रहता। इसमें आंतरिक वेदना का उद्वेग रहता है जो इस प्रकार मुखरित होकर वेदना के क्षणों को सत्य बनाता है। "यही उपालंभ जब किसी प्रकृति रूप (पक्षी आदि अथवा मेघ, पवन आदि) का आश्रय लेकर प्रकट होता है तो भावों की अभिव्यक्ति अधिक गहन हो जाती है। अपने आत्मीय विश्वास के सहारे प्रेमिका उसको सप्राण मानकर उसको अपने साहचर्य में ले लेती है और उससे अपने मन की बात उपालंभ के रूप में व्यक्त करती है,

परन्तु इस प्रसंग में उपालंभ प्रायः संदेश काव्य का अंग बन जाता है। कभी प्रिय के सहचर के मिल जाने पर तो यह उपालंभ और भी मुखर रूप धारण कर लेता है, परन्तु इस प्रकार का उपालंभ हिन्दी के भक्ति काव्य में ही विशेष रूप से मिलता है। वस्तुतः हिन्दी उपालम्भ काव्य की भावात्मक अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट स्वरूप इसी में रक्षित है।'

भक्ति साहित्य में प्राप्त होने वाले उपालंभों में कई प्रकार के उपालंभ भरे पड़े हैं, कहीं तो कृष्ण के प्रति गोपी व राधा के उपालंभ भरे पड़े हैं, कहीं यशोदा और नन्द के मातृ-पितृ हृदयजनित उपालंभ हैं। दोनों ही वर्ग के उपालंभों में सरसता और मार्मिकता प्राप्त होती है। भक्ति साहित्य में कभी-कभी भक्तों के अपने आराध्य के प्रति व्यक्त किये गये उपालंभ मिल जाते हैं। उपालंभ की प्रवृत्ति प्रायः भावात्मक होती है तथा लोकभावना के संसर्ग में पल्लवित और पुष्पित होती है। लोकनायिकाएँ अपने नायक के प्रति प्रायः उपालंभ देती रहती हैं। यह उपालंभ चील, कौआ आदि पक्षियों और चन्द्र, तारा या विभावरी आदि को सम्बोधित किये जाते हैं। यदा-कदा ऐसा भी देखा जाता है कि विरहिणी नायिका किसी अनायास आये पथिक के सहारे अपने मन की भावना को उपालंभों के सहारे प्रिय के पास तक भिजवाती है। लोकगीतों में यह भावना व्यापक आधार फलक पर प्रस्तुत होती है। नव विवाहितों वधू अथवा विवाहित बहिन अपने आत्मीय परिजनों के वियोग को अनेक बार उपालंभ के रूप में प्रकट किया करती है। साहित्य में उपालंभ की यह कोमल भावना प्रायः कम ही आकार पा सकी है, पर लोक काव्य या लोकजीवन इसे स्वीकार किया गया है।

भक्ति काव्य में उपालंभ काव्य का प्रमुख आधार कृष्ण का मथुरा प्रवास है। कृष्ण तो गोकुल छोड़कर मथुरा चले जाते हैं। बाद में गोपियाँ राधा गोप, यशोदा, नन्द, ग्वालबाल सभी उनके वियोग में दुःखी और व्याकुल हो जाते हैं। गोपियाँ हृदय पर पत्थर रख लेती है और जब उन्हें यह निश्चय हो जाता है कि कृष्ण अब नहीं लौटेंगे तो उनकी परेशानी और अधिक बढ़ जाती है। परिणामतः उनकी व्यथा उपालंभ बनकर सामने आती है। उपालंभों के दौरान उनके हृदय में गहनतम भावों की राशि पर राशि उनके भावों को उद्दीप्त करती है। यही बात भ्रमरगीत प्रसंग में भी देखी जा सकती है। आलोचकों का कहना है कि आगे चलकर उपालंभों की परम्परा बढ़ती जाती है और भ्रमरगीत के पर्याय के रूप में इसका विकास होता जाता है। साहित्यकोश में लिखा है कि, "हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम मैथिली कवि विद्यापति के पदों में राधा का कृष्ण के प्रति उपालंभ का उद्वेगपूर्ण चित्रण है। विद्यापति की राधा के उपालंभ में भी उनकी यौवनाद्वेलित विकलता का आवेग है। सूर की गोपियों के उपालंभ के दो स्थल हैं। पहली स्थिति में गोपियाँ कृष्ण के न आने पर उनको निष्ठुरता आदि के प्रति उपालंभशील अपनी विरह वेदना के क्षणों में होती है। दूसरा स्थल वह है जब उद्धव का आगमन होता है और गोपियाँ उनके निर्गुण उपदेश के उत्तर में उपालंभ का व्यंग्य के साथ समावेश करती है। भ्रमरगीत के इस प्रसंग में उपालंभ की भावना निरन्तर सन्निहित रही है और वास्तव में गोपियों के व्यंग्य और कटुक्तियों की व्यंजना यही है।'

भ्रमरगीत प्रमुख रूप से विप्रलंभ श्रृंगार की रचना है। वह वियोग गोपियों का वियोग है जो कृष्ण को लेकर है। श्रृंगार प्रधान रचना होने के कारण इसमें भावों की गरमी और अनुभूति की गहराई मिलती है। कृष्ण गोपियों के साथ रहे और अनेक रासलीलाएँ की किन्तु एक समय आया जब वे राज-काज के बहाने मथुरा में जा विराजे। उनका जाना था कि गोपियों का हृदय विरह की ज्वाला में दग्ध होने लगा। वह विरह घोड़ा ही शायद रहता किन्तु उद्धव के आगमन और विशेषकर उनके ज्ञानोपदेश ने इसमें धृत डालकर अग्नि को भड़का दिया। उद्धव ने ज्ञान का उपदेश गोपियों को क्या दिया अपनी आफत बुला ली। वस्तुतः समूचे भ्रमरगीत में गोपियों के प्रेमोन्माद से सम्बद्ध उद्गार हैं। इन सभी प्रेमोद्गारों का आधार श्रीकृष्ण और उद्धव है। कृष्ण की संयोगकालीन सभी बातें गोपिकाओं को याद आती हैं और वे कृष्ण को कोसती हैं ! उनकी निष्ठुरता और व्यंग्य करती हैं। उनके मित्र उद्धव भी इन शिकवा - शिकायतों की लपेट में आ जाते हैं। इसी कारण आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि श्रृंगार रस का इतना श्रेष्ठ उपालंभ काव्य दूसरा नहीं मिलेगा। उपालंभ काव्य की निम्नांकित प्रमुख प्रमुख विशेषताएँ स्थिर की जा सकती हैं -

1. प्रिय की निष्ठुरता का वर्णन
2. अपने प्रेम की दृढ़ता का वर्णन
3. प्रिय के विश्वास और आश्वासनों का स्मरण
4. प्रिय क अंग-अंग की सुधि करना और तत्पश्चात् की आग में जलना।

ये चार उपालंभ काव्य की विशेषताएँ हैं। सच्चाई यह है कि इस उपालंभ काव्य में ये सभी विशेषताएँ पायी जाती हैं। 'भ्रमरगीत' में दिये गये उपालंभों का आधार कृष्ण, उद्धव, प्रिय का प्रेम और मुरली तथा उनके श्रंग-प्रत्यंग हैं। कुछ विद्वानों ने इसे संदेश काव्य और दूत काव्य भी कहा है और अपने तर्क की पुष्टि में केवल एक दो स्थलों पर प्रयुक्त दूत और संदेश शब्दों को बताया गया है जो उचित नहीं है।

किसी भी श्रृंगारिक उपालंभ काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है - प्रिय की निष्ठुरता या बेवफाई का वर्णन। पुरुष की बेवफाई पर स्त्रियों की शिकायत की बात कोई नई नहीं है। पुरुष कठोरता की प्रतिमूर्ति है और नारी कोमलता की। उसके आंतरिक और बाह्य दोनों ही कोमल पक्षों का लाभ उठाकर पुरुष उसे लूट लेना चाहता है और नारी मोम सी मुलायम होने के कारण लुट जाना चाहती है। कृष्ण भी गोपियों के ऐसे ही प्रिय हैं, जो गोपियाँ का सर्वस्व लेकर भी उनकी ओर से बेखबर हैं। गोपियों की सारी शिकायत इसी पर आधारित है, हाँ इस उपालंभ को बल उस समय और मिल जाता है जबकि उद्धव प्रेम के स्थान पर योग की बातें करने लगते हैं। कृष्ण की निष्ठुरता पर व्यंग्य करने में गोपियों ने कोई कसर नहीं उठा रखी है। वे उनको भ्रमर या मधुकर की संज्ञा से अभिहित करती हैं तथा कहती हैं कि वे तो भ्रमर हैं जो रस लेना जानते हैं और देने के नाम पर तो मौन होकर प्रेयसियों का दिल दुखाना ही उनका धर्म है। गोपियों का कहना यह है कि -

प्रीति करि दीन्हीं गरे छुरी।
जैसे वधिक चुगाय कपटकन पाछे करत बुरी॥
मुरली मधुर चैंप करि कांपों मोरचन्द्र ठठवारी॥

गोपियों को तो अब कृष्ण का बिल्कुल विश्वास नहीं रह गया है। इसी अविश्वास के कारण वे उद्धव को भी लम्पट बेवकूफ और न जाने क्या-क्या कहती हैं -

मधुवनियाँ लोगनि को पतियाय।
मुख और अंतर्गत औरे पतियां लिखी पठवत हैं बनाय॥
जैसे मधुकर पुहुप बास लै फेरि न बूझे बातहु आय।
सूर जहाँ जौ स्यामगात हैं तिनसों क्यों कीजिए लगाए।

वे कहती हैं जितने काले हैं वे सबके सब एक ही प्रकार की आदत वाले हैं, निष्ठुर हैं, बेवफा हैं, और तो और कहते कुछ और करते कुछ और हैं -

मधुकर ! यह कारे की जांति।
ज्यों जल मीन, कमल पै अलि की त्यों नहिं इनकी प्रीति॥
कोकिल कुटिल कपट वायस छलि फिरि नहिं बहि बन जाती।
तैसेहि कान्ह केलि रस अंचयो बैठि एक ही पांति।
सुत-हित जोग जज्ञ व्रत की जत बहुविधि नीकी भांति॥
देखहु अहिमन मोह मया तजि ज्यों जननी जनि खाति।
तिनको क्यों मन विसमौ कीजै औगुन्न लौं सुख- सांति॥
तैसेई सूर सुनौ जदुनंदन, बजी एक स्वर तांति॥

इस प्रकार अनेक पदों में गोपियों ने प्रिय की निष्ठुरता पर व्यंग्य किये हैं और नये-नये उपालंभ दिये हैं। उपालंभों की इस प्रक्रिया में गोपियाँ कृष्ण की बेवफाई पर प्रहार तो करती हैं साथ ही उनकी निष्ठुरता और अपनी प्रेमजन्य दृढ़ता का परिचय भी देती हैं वे सोचती हैं और कहती हैं कि हे उद्धव ! हमने मन, कर्म और वाणी से हरि को अपना लिया है। प्रेम की अनन्यता के उदाहरणस्वरूप इन पंक्तियों को लिया जा सकता है। वे कहती हैं-

हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन वच क्रम नंदनंदन सों उर यह दृढ़ कर पकरी॥
जागत सोवत सपने सौंतुख कान्ह कान्ह जकरी॥
सुनतहि जोग लगत अलि ऐसो ! ज्यों करुई ककरी।
सोई व्याधि हमें लै आये देखी सुनि न करी।
यह तो जाहि उन्हें लै दीजै जिनके मन चकरी।

उपालंभों की इस स्थिति में गोपियों को दी गई उपमायें सार्थक है तभी तो निष्ठुर प्रिय को उपालंभ देकर प्रिय के अभाव में भी अपने प्रेम का दृढ़ता से परिचय दिया गया है। उपालंभ काव्य की ये सभी विशेषताएँ भ्रमरगीत में उपलब्ध हैं तभी तो इसे श्रेष्ठ श्रृंगारिक उपालंभ काव्य कहा गया है।

भ्रमरगीत में जो उपालंभ है वे कृष्ण और उद्धव के अतिरिक्त चन्द्रमा रात्रि, मयूर, मुरली को भी दिये गये हैं तथा कहा गया है -

1. कोउ माई ! वरजै या चंदहि !
    करत है कोप बहुत हम ऊपर, कुमुदिनी करत अंदहिं॥
2. या बिन होत कहा अब सूनो
    लै किन प्रकट कियो प्राचीन दिसि विरहिन को दुःख दूनो॥

आचार्य शुक्ल ने कहा है कि संयोग के दिनों में आनन्द की तरंगें उठाने वाले प्राकृतिक पदार्थों के वियोग के दिनों में देखकर जो दुख होता है उसकी व्यंजना के लिए कवियों में उपालंभ की चाल बहुत दिनों से चली आ रही है। चंद्रोपालंभ यह उपर्युक्त उदाहरण इसी परम्परा में है। मधुवन को हरा-भरा देखकर भी गोपियाँ उसे उपालंभ देती हैं -

मधुवन तुम कत रहत हरे !
विरह वियोग स्याम सुन्दर के ठाढ़े क्यों न जरे !
तुम हो निलज्ज लाज नहीं तुमको फिरि सिर पुहुप धरे॥

रात्रि सर्पिणी सी लग रही है। बरसात की अंधकारमय रात्रियों में यदा-कदा जब बादल हट जाते हैं तो चांदनी फैल जाती है और वह प्रिय के अभाव में सांपिन सी लग रही है। पपीहा, कोयल और मुरली से ईर्ष्या करती हुई गोपियाँ कहती हैं -

मूरलि तऊ गोपालहिं भावति।
सुनरी सखी! जदपि नंदनंदहिं नाना भांति नचावति।
राखति एक पांय ठाड़े करि अति अधिकार जनावती॥
आपुन पौढ़ि अधर सैया पर कर पल्लव सो पद पलुटावति।

भ्रमरगीत में गोपियों ने नींद को भी उपालंभ दिया है। एक गोपी सपने में कृष्ण को देख रही थी और उनके सामीप्य का लाभ उठाकर बड़ी प्रसन्न हो रही थी, इतने में उसकी नींद खुल गई और उसने उपालंभ के स्वर में कहा --

हमको सपनेहू में सोच।
जा दिन ते बिछुरे नंद नंदन ता दिन ते यह पोच॥
मनो गोपाल आये मेरे घर, हँसि करि भुजा गही।
कहा करौं वैरिन भई निंदिया, निमिष न और रही।

इतना ही नहीं, मोरों को भी उपालंभ दिया गया है -

हमारे भाई ! मारउ बैर परे।
घन गरजे बरजे नहिं मानत त्यों-त्यों रटत खरे॥
करि एक और बीनि इनके पंख मोहन सीस धरे॥
याही ते हम ही को भारत हरि ही दीठ करे।
कह जानिये कौन -गुन, सखिरी ! हम सों रहत अरे।
सूरदास परदेस बसत हरिय ए बनते न टरे॥

निष्कर्ष यही है कि सूर का भ्रमरगीत एक उपालंभ काव्य है। श्रृंगारिक पद्धति पर रचे गये उपालंभ काव्यों में जिन गुणों का समावेश होना चाहिए वह इस भ्रमरगीत में है। अतः वह भ्रमरगीत एक उपलभ काव्य है। नींद, चन्द्रमा, मेघ, मधुवन और कृष्ण व उद्घष को दिये गये उपालंभों में स्नेह और सरसता विद्यमान है। डॉ. चन्द्रभान रावत के शब्दों में उपालंभ का तत्व सूर साहित्य का एक व्यापक अभिप्राय है। बाल लीलाओं के संदर्भ में उपालंभ ने भावोत्कर्ष को चरम पर पहुँचाया है। आए दिन गोपियों के उपालंभ यशोदा को खिन्न बनाते रहते हैं। उपालंभ दो प्रकार के थे माखन चोरी से सम्बन्धित और श्रृंगारिक छेड़छाड़ को लेकर। वास्तव में दोनों का मूल श्रृंगार में था। उपालंभ की एक उत्तेजना यशोदा के हृदय में दिखलाई देती है, दूसरी रमणीयता गोपियों के प्रेमाकुल हृदय में ज्यों-ज्यों शृंगार के संदर्भ अधिक धनीभूत होते जाते हैं, उपालंभ का ब्याज भी अपने मूल रूप में प्रकट होता जाता है। दानलीला के उपालंभों की धमकी की न कृष्ण ही चिन्ता करते हैं और न यशोदा ही इन उपालंभों में भेदभाव बिल्कुल नहीं, शुद्ध आत्मीयता है। प्रेम सम्बन्ध के साथ उपालंभ छाया के समान जुड़ा हुआ है। आत्मीयता में पले-बढ़े उपालंभ की सूर के अत्यन्त मार्मिक अभिव्यक्ति की है।'

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों के आधार पर विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन कीजिए।
  3. प्रश्न- "विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी" इस सम्बन्ध में प्रस्तुत विविध विचारों का परीक्षण करते हुए अपने पक्ष में मत प्रस्तुत कीजिए।
  4. प्रश्न- विद्यापति भक्त थे या शृंगारिक कवि थे?
  5. प्रश्न- विद्यापति को कवि के रूप में कौन-कौन सी उपाधि प्राप्त थी?
  6. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे?
  7. प्रश्न- काव्य रूप की दृष्टि से विद्यापति की रचनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
  8. प्रश्न- विद्यापति की काव्यभाषा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
  10. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एवं अनुप्रामाणिकता पर तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए।
  11. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो' के काव्य सौन्दर्य का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  12. प्रश्न- 'कयमास वध' नामक समय का परिचय एवं कथावस्तु स्पष्ट कीजिए।
  13. प्रश्न- कयमास वध का मुख्य प्रतिपाद्य क्या है? अथवा कयमास वध का उद्देश्य प्रस्तुत कीजिए।
  14. प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
  15. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो का 'समय' अथवा सर्ग अनुसार विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  16. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो की रस योजना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- 'कयमास वध' के आधार पर पृथ्वीराज की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- 'कयमास वध' में किन वर्णनों के द्वारा कवि का दैव विश्वास प्रकट होता है?
  19. प्रश्न- कैमास करनाटी प्रसंग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)
  21. प्रश्न- जीवन वृत्तान्त के सन्दर्भ में कबीर का व्यक्तित्व स्पष्ट कीजिए।
  22. प्रश्न- कबीर एक संघर्षशील कवि हैं। स्पष्ट कीजिए?
  23. प्रश्न- "समाज का पाखण्डपूर्ण रूढ़ियों का विरोध करते हुए कबीर के मीमांसा दर्शन के कर्मकाण्ड की प्रासंगिकता पर प्रहार किया है। इस कथन पर अपनी विवेचनापूर्ण विचार प्रस्तुत कीजिए।
  24. प्रश्न- कबीर एक विद्रोही कवि हैं, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
  25. प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।
  26. प्रश्न- कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। इस कथन के आलोक में कबीर की काव्यभाषा का विवेचन कीजिए।
  27. प्रश्न- कबीर के काव्य में माया सम्बन्धी विचार का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  28. प्रश्न- "समाज की प्रत्येक बुराई का विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है।' विवेचना कीजिए।
  29. प्रश्न- "कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया था।' स्पष्ट कीजिए।
  30. प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
  33. प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
  34. प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
  35. प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
  36. प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
  37. प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
  38. प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
  39. प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
  40. प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
  42. प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
  43. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
  44. प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
  45. प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
  46. प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  47. प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
  48. प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
  49. प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  50. प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
  52. प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
  54. प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
  55. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
  56. प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
  57. प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
  59. प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  60. प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
  61. प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
  63. प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
  64. प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  65. प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
  68. प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
  69. प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
  70. प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
  72. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
  73. प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
  75. प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
  76. प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
  77. प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
  79. प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
  80. प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
  81. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
  82. प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  84. प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  86. प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
  87. प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  88. प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
  90. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)

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